Saturday, February 26, 2022

भारतीय अर्थव्यवस्था एवं अपेक्षाएं...

कोविड़ के दौरान भारत के कृषि क्षेत्र ने अन्य क्षेत्रों, सट्टा बाज़ार छोड़ कर, से बेहतर प्रदर्शन किया है, क्योंकि वह लॉक-डाउन से बचे हुए थे, वहां बंदी नहीं हुई थी. भारत का असंगठित क्षेत्र मुख्यतः कृषि अर्थव्यवस्था से बना हुआ है, भारत की श्रम सेना का ७०% भाग मौसमी रूप से कृषि में खपा हुआ है, जिसका सही आंकड़ा सरकार के पास नहीं है, जो ब्याज दर निर्धारण के लिए आवश्यक है.  भारत में मांग और विकास की कमी नहीं है, परन्तु वह महंगाई/स्फीति एवं उसकी अपेक्षा में जकड़ा हुआ है. यदि हम मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाए तो वह विकास और महंगाई दोनों को बढ़ाएगा, यद्यपि कम महंगाई वास्तविक विकास दर, वास्तविक आय और मांग एवं कीमत अपेक्षाओं को बढ़ाएगी, क्योंकि सभी की मांग एक साथ बढ़ेगी.  

रिज़र्व बैंक का कार्य है कि वो अर्थव्यवस्था में निवेश को बढाने के लिए स्फीति एवं ब्याज दर अपेक्षाओं को स्थिर रखे. व्यापार उत्पादन बढाने एवं स्टॉक में निवेश बढाने के लिए अपेक्षित कीमतों को भी ध्यान में रखते हैं, ऊँची कीमत अपेक्षाएं निवेश मांग को बढ़ातीं हैं, जो कीमतों को और भी बढ़ाती हैं, यद्यपि उपभोग मांग भी कीमतों को बढ़ा सकती हैं, इसका विपरीत भी उतना ही सत्य है. काफी अधिक या कम कीमतें, वृद्धि/ह्रास की अनुभूति या अपेक्षाओं में बदलाव के लिए उत्तरदायी होते हैं, जोकि आधार या निराधार प्रभाव पर निर्भर करता है. 

हांलाकि सट्टा बाज़ार का मूल्यांकन दिखाता है कि निवेशक भारत की विकास कि कथा में विश्वास करते हैं, क्योंकि वह विश्व कि सबसे अधिक गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, सभी उसके लिए उत्साहित हैं.

अल्पकाल में देश-विदेश में घटने वाली घटनाएं और प्रोत्साहन की सूचनाएँ सट्टा बाज़ार सूचकांक को कंपनियों की आमदनी और बुक अनुपात से ज़्यादा प्रभावित करती हैं, अपितु वह भी महत्वपूर्ण होते हैं. हालांकि अभी ओमिक्रोन को छोड़कर कोई बड़ी मुसीबत अप्रत्याशित हैं, जिसके कारण बड़ी गिरावट कि आशंका कम ही है, मगर ५-१०% का सुधार कभी भी हो सकता है, परन्तु ५-१०% का चढ़ाव भी नकारा नहीं जा सकता है. 

ऐसी संभावना हो सकती है कि सट्टा बाज़ार किसी बड़ी गिरावट के पहले अपनी स्वाभाविक स्तिथि में आये. विश्लेषक आम तौर पर चरम स्तिथि कि बात करते हैं, जबकि यह समय स्तिथि के सामान्य होने का है और कोई भी बड़ा सुधर निवेश को बढाने का सही समय होगा. हम बाज़ार कि सीधी चढ़ाई की स्तिथि के मध्य में हैं, जैसा की २००९ से २०१७ के बीच में अनुभव किया गया था, जबकि अर्थव्यवस्था में आधार-प्रभाव के कारण  सुधार की काफी गुंजाइश हैं और वह अपनी पकड़ भी बना रही है और इससे ऊँची अपेक्षाएं है. आर्थिक सुधार धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार बढ़ा रहा है. 

अनलॉक और अर्थव्यस्था के खुलने के पश्चात कम्पनीयों कि आमदनी बढ़ने की अपेक्षाएं ज्यादा हैं, परन्तु जहाँ मूल्य बहुत ज्यादा बढे हुए हैं वहां लोग अपेक्षा करते हैं कि दाम घटेगा. 

यदि बाज़ार अपने लोकप्रिय अपेक्षाओं के हिसाब से बढता-घटता है, तो यह निवेशकों के लिए अच्छा होता है, परन्तु अनिश्चितता और नकारात्मक चौकाने वाली घटनाएँ निवेश के लिए बुरी होती हैं. सट्टा बाज़ार एक अग्रोंमुख तंत्र होता है जोकि अच्छी या बुरी सूचना को कीमत अपेक्षाओं के ज़रिए कीमत में पहले ही सम्मिल्लित कर लेता है. कम कीमत की अपेक्षाएं मांग में विलम्ब कर पूर्ती को बढाती हैं जिससे कीमत और घट जाती है एवं ज्यादा कीमत की अपेक्षाएं पूर्ती में विलम्ब कर मांग को बढाती हैं जो कीमतों को और भी  बढाता है. 

कोविड़ काल के कम कीमत आधार की वजह से दुनिया की आर्थिक शक्तियों की इस साल कि आर्थिक वृद्धि दर एवं महंगाई एवं अपेक्षाएं काफी ऊँची रहीं और इसी वजह से निराधार प्रभाव के कारण अगले साल की महंगाई  और विकास दर नीचे रहने का अनुमान या अपेक्षा है.

भारत एवं अमेरिका में ऊँची महंगाई और विकास दर का एक कारण एक सांख्यिकीय भ्रम भी है, जिसे आधार प्रभाव कहा जाता है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है. यह ऐसा यूँ होता है, क्योंकि आधार वर्ष में बहुत कम महंगाई एवं विकास दर के कारण अर्थव्यवस्था के सामान्यीकरण के कारण काफी उछाल आ जाता है, परन्तु जब महंगाई और विकास दर का आधार सामान्य हो जाते है, तो आगे के वर्षों महंगाई और विकास दर भी सामान्य हो जाती है. आधार समय सामान्यतया पिछली तिमाही या पिछला वर्ष होता है, यदि हम आधार समय बदल दें तो, यह सीधे सीधे वर्तमान आंकड़ों को प्रभावित करेगा. कम महंगाई और विकास दर वाला आधार वर्ष वर्तमान में महंगाई और विकास दर ऊँचा या अधिक दिखाएगा और ज्यादा महंगाई और विकास दर वाला आधार वर्ष वर्तमान की महंगाई और विकास दर को कम दिखाएगा.

जहाँ तक आंकड़ों और सांख्यकी का सवाल है, तो हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि पिछली तिमाही या पिछले साल क्या हुआ था, जो की इस वर्ष के लिए आधार होगा. अनुक्रमाणिका चाहे वह महंगाई के लिए हो या विकास के लिए, वह हमेशा पिछली तिमाही या पिछले वर्ष को आधार मान कर बनाया जाता है. पिछली तिमाही या पिछले वर्ष क्या हुआ हमारे वर्तमान महंगाई और विकास दर को सीधे-सीधे प्रभावित करता है, यदि हम आधार तिमाही/वर्ष बदल दें तो हमारा वर्तमान आंकड़ा भी बदल जाता है, भूतकाल में क्या हुआ वह वतर्मान का निर्धारण करता है.            

भारत में वर्तमान महंगाई दर ४.९१% है जिसका आधार वर्ष २०२० है, यदि हम २०१२ को आधार वर्ष मान कर २०२१ की महंगाई दर निकाले तो वह ७०% है, और यदि हम उसे १० (वर्ष) से भाग दें तो प्रति-वर्ष महंगाई ७% होगी. जहाँ तक महंगाई का प्रश्न है तो हम एक ही नदी में कभी नहीं उतरते, वह हर वर्ष बढ़ती ही रहती है. सही आकडे प्रतिशत और अनुपात के पर्दे के पीछे रहते है, जो आम आदमी को ज्यादा समझ नहीं आते है. सरकार को चाहिए की वह सापेक्षिक आंकड़ों की बजाये निरपेक्ष आंकड़ों को सार्वजनिक करे, जो की जनता समझ आये और यह निवेश बढ़ने और बजट बनाने में मददगार होगा.

सभी देशों की विनिमय दर समय के साथ मजबूत हुई है, परन्तु भारत की विनिमय दर समय के साथ कमजोर हुई है, जो कि नीति के तौर पर भारत के नीतिनिर्माताओं की एक बड़ी भूल है, जो देसी मांग को कम कर निर्यात को बढ़ावा देती है, जो सुधार योग्य है, भारत को भी अन्य देशों से सबक लेना चाहिए. भारत को चाहिए की वह धीरे-धीरे अपने विनिमय दर को मजबूत करे जिससे आयातित महंगाई कम होगी और कम महंगाई के कारण निर्यात भी बढ़ सकते हैं.

यदि लोगों की आय महंगाई से ज्यादा बढ़ती है, तो थोड़ी महंगाई अच्छी होती है. मौद्रिक नीति के सामान्यीकरण का मतलब होगा की अर्थव्यवस्था अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह पर है. भारत में सामान्यीकरण के कारण ऊँची ब्याज दर अपेक्षाओं की वजह से महंगाई की अपेक्षा कम ही है.          


भारत में महंगाई चुनावों की दिशा तय करती है ...

कोविड़ १९ के पूर्व भारतीय अर्थवयवस्था ८ % की सम्मानजानक आर्थिक वृद्धि दर के साथ विश्व की सबसे तेजी से विकास करने वाली आर्थिक शक्तियों जैसे अमेरिका एवं चीन में से एक था, या ये कहें कि आर्थिक वृद्धि दर के मामले में उनसे भी आगे तो अतिश्योक्ति नहीं होगा I परन्तु ऐसा तभी संभव हो सका है, जबकी भारत सरकार की वित्तीय सहयोगी रिज़र्व बैंक ने सरकार द्वारा मान्य लचीले स्फीति लक्ष्य को अपनाया है और भारत में स्फीति सीमा के अन्दर रही है, तथापि यह अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें एवं खाद्य महंगाई  के कम रहने के कारण ही संभव हो सका, जो अर्थव्यवस्था में महंगाई और स्फीति के लिए ऐतहासिक रूप से जिम्मेदार रहे है I यह कथन वर्तमान के परिपेक्ष में भी उतना ही सत्य है I

लचीले स्फीति लक्ष्य के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक कि मौद्रिक नीति को स्फीति और आर्थिक वृद्धि में सामंजस्य स्थापित करना है, स्फीति को एक सीमा में नियंत्रित कर आर्थिक वृद्धि को अधिकतम करना है I भारतीय संसद द्वारा रिज़र्व बैंक को स्फीति को ४ % +/- २ % तक ही सिमित रखना है और अगर ऐसा नहीं होता है तो गवर्नर को संसद को स्पष्टीकरण देना होगा I चार्ट पर गौर करें -

 


भारत की खुदरा मूल्य स्फीति सितम्बर में ४.३५ % कम हुई है जो अगस्त में ५.३% थी, यह बाज़ार की अपेक्षित स्फीति ४.५% से कम रहा है, यह ५ महीनों में सबसे कम है  जो आर बी आई के २ – ६% के लक्ष्य के अन्दर लगातार ३ महीने रहा है I भारत में खाद्य महंगाई ०.६८ % रही वहीँ जबकि २०१९ में वह ३.११ % थी, जो की काफी कम है I कृषि लागत भी कम हुई है जबकि तेल की कीमत बढ़ी हैं, वह १२.९५ % से बढ़ कर १३.६३ % हो गयी है I  

जैसा की ऊपर कहा गया है कि भारत में तेल और खाद्य महंगाई ऊँची स्फीति और अपेक्षित स्फीति के दो प्रमुख कारण हैं, क्यूंकि इनकी सप्लाई की अनिश्चितता बनी रहती है I तेलों के दाम महंगे डॉलर में होने के कारण और ऊँचे आयात दोनों ही स्फीतिकारी हैं I भारत तेल का एक बड़ा आयातक देश है और अन्तर्राष्ट्रीय कारण का उपाय कम ही हो पाता होता है और तेल उत्पादक देशों में अस्थिरता है, सबको तेल की आवश्यकता है, तेल कि सप्लाई कम और डिमांड ज्यादा है I सभी तेल पर कब्ज़ा चाहते हैं, जो आर्थिक दृष्टि से अहम् हैं I जहाँ तक खाद्य महंगाई का सवाल है वह कुप्रबंधन और वर्षा की वजह से चढ़ जाती है I आवश्यकता से अधिक पूर्ति और उसके कम विविधिकरण  के कारण कृषि अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गयी है, सभी चावल गेहूं पैदा कर रहें हैं I यही नहीं, रोज़गार के लिए कृषि पर निर्भरता बहुत अधिक है और कृषि का सकल घरेलु उत्पाद में हिस्सा कम होता जा रहा है, कृषि में जरूरत से ज्यादा लोगों के होने के कारण कृषि अर्थव्यवस्था में प्रतिव्यक्ति आय और मांग कम हो गई हैं I भण्डारण व्यवस्था न होने के कारण किसान परेशान हैं, वो स्टॉक को नियंत्रित नहीं कर पाते और इसका फायदा बिचौलियों और खुदरा व्यापारियों को जाता I अगर किसान अपना स्टॉक सीधे खुदरा व्यापारियों को बेचेंगे तो खाद्य पदार्थों की कीमतें एवं महंगाई कम हो जाएगी और किसानों और उपभोक्ताओं को भी फायदा पहुंचेगा I  

जो लक्ष्य रिज़र्व बैंक के लिए हैं वही सरकार का भी लक्ष्य है ( और होना चाहिए), सरकार की आर्थिक नीति या राजकोषीय नीति  और आरबीआई की मौद्रिक नीति समन्वित तौर पर अपेक्षित मांग एवं पूर्ति एवं कीमत स्तर और रोजगार को प्रभावित करता है,  जिसका सीधा असर वास्तविक निवेश और कीमतों पर पड़ता है I अपेक्षित मूल्य स्तर ज्यादा या कम निवेश मांग को सीधे-सीधे प्रभावित करता है, कम कीमतें मांग बढाती या पूर्ति घटाती हैं और ज्यदा कीमत मांग घटाती या पूर्ति बढाती हैं, यह मांग और पूर्ति के नियम हैं I सारा निवेश अपेक्षित मूल्य को ध्यान में रख कर किया जाता हैं I मांग बढ़ेगी तो अपेक्षित कीमतें बढेंगी, निवेश बढेगा - उपभोग बढेगा I  

रिज़र्व बैंक एवं सरकार के बीच मतभेद आम हैं I सभी सरकारें चाहती हैं की उनके कार्यकाल में ब्याज दर कम रहे, ताकि आर्थिक वृद्धि दर ऊँची रहे, जिससे रोजगार बढे I परन्तु विभिन्न कारणों, जैसे उपरोक्त कारण, तेल एवं खाद्य महंगाई एवं अपेक्षित महंगाई या कीमत स्तर एवं संलग्नित अनिश्चितता के कारण ब्याज दर को हमेशा कम रखना संभव नहीं होता है I यही वजह थी कि हमारे निवर्तमान गवर्नर उर्जित पटेल को अपने कार्यकाल से पहले ही त्यागपत्र देना पडा I उन्होंने २०१८ में बढती तेल कीमतों के कारण दो बार ब्याज दरें बढ़ा  दी थी, जो सरकार को नागवार था I यही स्थिति वर्तमान गवर्नर शक्तिकान्त दास के साथ भी आ गयी (मतभेद), जब उन्होंने कहा की तेल की बढती कीमतों के कारण अपेक्षित स्फीति बढ़ गयी है, जिसके लिए सरकार को तेल पर टैक्स कम करना चाहिए I आरम्भ में सरकार का कहना था, कि भारी टैक्स कोविड़ की वजह से बढे खर्च को निकालने के लिए लगाया गया है I तदोपरांत वर्तमान गवर्नर का कार्यकाल ३ सालों के लिए बढ़ा दिया गया है, उन्होंने स्फीति के बजाय आर्थिक वृद्धि दर पर बल दिया है और सरकार ने तेल पर एक्साइज ड्यूटी को घटा भी दिया है I  

यदि आरबीआई भी चाहे तो तेल की कीमतें कुछ कम की जा सकती हैं I अगर वो बाज़ार मैं डॉलर की सप्लाई बढ़ाये या आयातित तेल को डॉलर डिस्काउंट पर दे, जिसके द्वारा भी तेल की कीमतें और महंगाई कम की जा सकती है, सस्ते डॉलर की वजह से आयातित तेल और अन्य आयात की कीमतें सस्ती हो सकती हैं Iकिसी भी अर्थव्यवस्था में कीमतों को प्रतियोगितात्मक और स्फीति को कम रखने के लिए आवश्यक है कि उत्पादन संरचना को प्रभावी बनाया जाए ताकी लागत कम हो, नवाचार हो और पैमाने की अर्थव्यवस्थाएं हो I  

अर्थशास्त्रियों का मानना है की महंगाई और बेरोजगारी में काफी सम्बन्ध होता है, जब बेरोजगारी होती है तो कम ब्याज दर महंगाई और कीमतें घटाती हैं और अगर पूर्ण-रोजगार होता है तो महंगाई बढती है I भारत के नीति निर्माताओं के समक्ष रोजगार और रोजगार का आंकड़ा भी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि उसके बिना पता लगाना मुश्किल है की अर्थव्यवस्था के पास कितनी क्षमता बाकी है, और उसका क्या उपयोग करना है, जो सीधे-सीधे महंगाई को प्रभावित करता है I भारत की अर्थव्यवस्था का लेबर क्षेत्र ज्यादातर  असंगठित  है I             


आज कल जिधर देखिये कोयले की कमी और बिजली की कटौती के चर्चे आम हैं !

इक्कीसवीं सदी में उर्जा एवं बिजली के बिना जीवन अपरिकल्प्नीय, उसकी कल्पना व्यर्थ है I मोबाइल से लेकर सभी प्रकार की उत्पादन की मशीनरी बिजली पर ही निर्भर है I जिन देशों में बिजली की कमी है, वहां का उत्पादन स्तर अन्य देशों की तुलना में कम होता है, बिजली की जरूरत हर जगह है I कोयला बिजली उत्पादन का एक परंपरागत संसाधन है I विश्व में स्वच्छ-उर्जा की मांग ने फॉसिल फ्यूल के उपयोग के बारे में पुनर्विचार पर बल दिया है, जिससे पर्यावरण में संतुलन स्थापित करने में मदद मिलेगी I परन्तु कोयला आधारित उर्जा उत्पादन भारत में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में फैला है, जिसे कम करने में अभी भी समय लगेगा I भारत ही नहीं अपितु चाइना भी कोयले और बिजली के संकट से गुजर रहा है, जिसने अपने कई उद्योग बिजली की कमी के कारण बंद कर दिए हैं I भारत में बिजली का ७०% उत्पादन कोयले से होता है I विभिन स्रोतों से ज्ञात होता है, कि पावर प्लान्टों में कोयले की कमी के मुख्य कारण अनलॉक एवं मांग में बढ़ोतरी एवं भारी वर्षा है I

पंजाब, हरयाणा, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश उत्तरी क्षेत्र में, आंध्रप्रदेश दक्षिणी क्षेत्र में, बिहार एवं झारखंड पूर्वी क्षेत्र में एवं गुजरात पश्चिम में बिजली संकट से सर्वाधिक प्रभावित हुए है I विद्युत् नियन्त्रण नियामक पावर सिस्टम ऑपरेशन कारपोरेशन (पीओएसओसीओ) जोकि दैनिक रूप से सम्पूर्ण भारत में बिजली की मांग एवं पूर्ति के लेखा-जोखा को नियंत्रित एवं संभालता है, के अनुसार राजस्थान, हरयाणा एवं पंजाब बिजली कटौती से सबसे अधिक प्रभावित हैं, जहाँ बिजली की काफी कमी है I बिहार एवं झारखण्ड में बिजली की कमी क्रमशः ५.१२ मेगा यूनिट एवं ४.९२ मेगा यूनिट है, जिसकी वजह से आजकल १० घंटे की बिजली कि कटौती होती है I राजस्थान में १७.८९ मेगा यूनिट; पंजाब में ५.२५ मेगा यूनिट; हरयाणा में ८.७३ मेगा यूनिट एवं उत्तर प्रदेश में १.९२ मेगा यूनिट बिजली की कमी है I जम्मू एवं कश्मीर एवं लद्दाख में बिजली की कमी ३.४५ मेगा यूनिट है I गुजरात में ३.८३ मेगा यूनिट एवं आंध्रप्रदेश में ३.८४ मेगा यूनिट बिजली की कमी है I

राज्य सरकारों द्वारा नागरिकों को सन्देश दिया जा रहा है कोयले की कमी के कारण, वह बिजली कटौती के लिए तैयार रहे जब कई पावर प्लांट बंद चल रहे हैं, जबकि केन्द्र बार बार यह दोहरा रहा है कि घबराने की कोई जरुरत नहीं है I ३ पावर प्लांट महाराष्ट्र में, ४ केरला में, और ३ ही पंजाब में बंद पड़े हैं I बिजली संकट के भय से पंजाब एवं कर्नाटक के मुख्य मंत्रियो ने केन्द्र से कोयले की आपूर्ति बढ़ने कि गुहार लगायी है I केन्द्रीय उर्जा मंत्री आर के सिंह ने कहा है कि देश कोयले की अपनी औसत खपत से चार दिन आगे चल रहा है और इस मुद्दे पर अनावश्यक भय फैलाया जा रहा है I  

कोल् इंडिया जो की विश्व में कोयला उत्पादन में आगे हैं ने कहा है की वो प्रति दिन कोयले का उत्पादन मध्य अक्टूबर से १.७ मिलियन टन से बढाकर १.९ मिलियन टन करने पर विचार कर रहा है, जोकि कोयले की कमी को दूर करने में काफी सहायक होगा I बिजली कि बढती कीमतों के कारण आयातित कोयले से उत्पादन बढ़ाना संभव हो सकता है, जिससे घरेलु उत्खननकर्ताओं को राहत मिलने की उम्मीद है I देश अपनी उर्जा की मांग का तीन चौथाई कोयला देश में उत्पादित करता है और बाक़ी का कोयला ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका और इंडोनेशिया से आयत किया जाता है I 

गाँव और अर्ध-शहरी इलाकों में घरेलु बिजली की आपूर्ति में राशन की व्यवस्था बिजली की समस्या को कम करने में सहायक हो सकती है, परन्तु यह सरकार के लिए अन्य चुनौतियाँ लेकर आ सकता है, जैसे सरकार की आय कम होना और बजट पर दबाव, जोकि देश की धीमी पड़ी आर्थिक गति को विपरीत रूप से प्रभावित कर सकता है और रोजगार कम कर सकता है I 

बिजली की स्पॉट कीमतें, जोकि भारतीय उर्जा विनिमय लि. के जरिये बेचीं जाती है, सितम्बर में पिछले वर्ष के मुकाबले ६३% उछली जिसका औसत ४.४ रुपये ($०.०६) किलोवाट प्रति घंटा रहा जो पिछले कुछ दिनों में  बढ़कर १३.९५ रूपये हो गया है I नए नियम बनाये जा रहे हैं, जिससे जो उर्जा उत्पादन करने वाली कंपनियों है  अतिरेक बिजली को विनिमयों को बेंच सकेंगी जो खाली पड़े प्लान्टों में पुनर्जीवित कर सकती हैं I गुजरात में दो बड़े प्लांट टाटा पावर को. और अदानी पावर ली. ने ऊँची आयातित कोयले कि कीमतों के कारण अपने  उत्पादन को स्थगित कर दिया है I

हाल के दिनों में बिजली मंत्रालय का कहना है कि कोयला आधारित प्लान्टों में कोयले की वजह से बिजली की  कटौती में कमी हुई है I कोयले की कमी और बिजली आपूर्ति में गतिरोध के मद्देनजर प्राइम मिन्स्टर ऑफिस (पीऍमओ ) ने कोयला आधारित प्लान्टों में कोयले कि स्थिति का पुर्नावलोकन किया है I कोयले और बिजली मंत्रालय ने आश्वासन दिया है की बिजली की स्थिति आगे बेहतर होगी I

हांलाकि विश्व में प्राकृतिक गैस के दाम बढे हैं पर बिजली के उत्पादन में प्राकृतिक गैस का भी एक एक अहम् स्थान है I भारत के पास लगभग २५ गीगा वाट गैस आधारित उत्पादन की क्षमता है, परन्तु उस क्षमता का ८०% महंगे इंधन के कारण उपयोग में नहीं लाया जाता है I परन्तु संकट के समय इस क्षमता का उपयोग किया जा सकता है I एनटीपीसी के पास क्षमता है की जरूरत पड़ने पर वह अपना उत्पादन ३० मिनट में बढा सकता है और अगर जरूरत पड़े तो वह किसी ग्रिड से भी जोड़ा जा सकेगा I प्रदूषण प्रतिबन्ध और तेल इंधन की ऊँची कीमतों के कारण इनका बिजली के उत्पादन में प्रयोग कम ही रहने की उम्मीद है Iवैश्विक उर्जा उपभोग एवं उनकी कीमतें कोविड के प्रारंभिक महीनों में अपने ऐतिहासिक न्यून के करीब पहुँच गयी थीं, परन्तु उसके उपरान्त उन्होंने काफी उछाल मारा है I

बिजली एवं इंधन की ऊँची कीमतें सीधे-सीधे उत्पादन की लागत एवं अन्य कीमतों को प्रभावित करतीं हैं, जोकि अर्थव्यवस्था में स्फीति को बढाता है, जिससे लोगों कि वास्तविक आय कम हो जाती है और उनकी अन्य वस्तुओं और सेवाओं कि मांग कम हो जाती है, जो आर्थिक वृद्धि दर को कम कर सकता है I इसकी वजह से वह आय में बढ़ोत्तरी कि मांग करते हैं, जो और स्फीति बढ़ता हैं I स्फीति ही स्फीति की जननी होती, इसलिए सरकार को चाहिए की वह बिजली और इंधन की कीमतों को स्थिर रखे जो अर्थवयवस्था में मांग और कीमतों को अपने वश में रखेगा I    

पूरा विश्व इस समय मांग में बढ़ोतरी के कारण उर्जा की कमी में जकड़ा हुआ I वर्षा ने जिसने कोयले की खदानों में बाढ़ ला दी है, उसी ने जल-उर्जा परियोजनाओं को बढ़ने में मदद भी की है I बांधों पर बड़ी जल-उर्जा परियोजनाएं, कोयले के अलावा भारत में बिजली का एक मुख्य जरिया है I

पिछले हफ़्तों से भारत में कोयले की कमी एवं बिजली कटौती पर एक गहन वाद-विवाद चल रहा है I हालांकि विशेषज्ञों का कहना है, कि कोयले की कमी के मुख्य कारण उसका कम और महंगा ट्रांसपोर्ट है और अन्य वित्तीय समस्याएँ भी है I उनका कहना है कि कोई भी सरकार ऐसी स्थिति में पड़ना नहीं चाहेगी जो कि राजनितिक दृष्टि से ठीक नहीं होगा और अंतर्रराष्ट्रीय आयामों वाला होगा और जिसके परिणाम दूर्गामी होंगे I


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